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बूढ़ी कांग्रेस को युवा राजनेताओं को बढ़ाने से रोका किसने है? – (भाग-1)

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कांग्रेस का विरोध माने भाजपा का समर्थन ही नहीं है. और भाजपा से विरोध का मतलब कांग्रेस की समर्थन ही नहीं माना जाना चाहिए. हमने हाल के वर्षों में राजनीति को देखने के चश्मे ऐसे बना लिए हैं कि वयक्ति अनुमान लगाने लगा है कि असल बात क्या है. इसके लिए राजनीतिक शिक्षण भी दोषी है. राज माया के पिछले अंक में मैने नरेन्द्र मोदी के बारे में लिखा था. इस बार राहुल गांधी पर लिखा है. देश के राजनीतिक दलों के अनेक दोष सामाजिक दोष भी हैं, पर हमें सबको देखने समझने की कोशिश भी करनी चाहिए.

परिवहन मंत्री ऑस्कर फर्नांडिस ने हाल में अचानक एक रोज कहा, राहुल गांधी के अंदर प्रधानमंत्री बनने के पूरे गुण हैं. उनकी देखा-देखी सुशील कुमार शिंदे, पीसी चाको और सलमान खुर्शीद से लेकर जीके वासन तक सबने एक स्वर में बोलना शुरू कर दिया कि राहुल ही होंगे प्रधानमंत्री. पिछले महीने बीजेपी के भीतर नेतृत्व को लेकर जैसी सनसनी थी वैसी तो नहीं, पर कांग्रेस के भीतर अचानक राहुल समर्थन का आवेश अब नजर आने लगा है. यह आवेश अभी पार्टी के भीतर ही है, बाहर नहीं. राहुल के समर्थन की होड़ में कोई भी पीछे नहीं रहना चाहता. मैक्सिकन वेव की तरह लहरें उठ रहीं हैं और आश्चर्य नहीं कि देखते ही देखते मोहल्ला स्तर तक के नेता राहुल के समर्थन में बयान जारी करने लगें. लगभग उसी अंदाज में जैसे सत्तर के दशक में इंदिरा गांधी के पक्ष में समर्थन की लहर उठती थी. अचानक कहीं से प्रियंका गांधी का नाम सामने आया कि मोदी के मुकाबले कांग्रेस प्रियंका को सामने ला रही है. यह खबर पार्टी के भीतर से आई या किसी विरोधी न फैलाई, पर पूरे दिन यह मीडिया की सुर्खियों में रही.

राहुल के नेतृत्व को लेकर दो राय कभी नहीं थी. सब जानते हैं कि वे आज प्रधानमंत्री बनना चाहें तो उनके लिए कोई रोक नहीं है. पर तभी तक जब तक यह ताकत सोनिया गांधी के हाथ में है. 2014 के चुनाव के बाद के बारे में अभी कहना मुश्किल है. अभी पार्टी ने उन्हें नरेन्द्र मोदी के मुकाबले प्रधानमंत्री पद के प्रत्याशी के रूप में औपचारिक रूप से घोषित करना नहीं चाहती. राहुल खुद भी उत्सुक नहीं लगते थे. इधर कुछ घटनाएं ऐसी हुई हैं कि वे तेजी से खबरों में आ रहे हैं. हो सकता है यह अनायास हो, पर जो भी है जोरदार है.

नौजवानों की सरकार

हाल में रामपुर की एक रैली में राहुल गांधी ने कहा कि 2014 में युवाओं की सरकार बनेगी जो देश को बदल देगी. मीडिया ने इसका मतलब सीधे-सीधे यह लगाया कि कि वे पीएम बनने के लिए तैयार हैं. इसकी प्रतिक्रिया में फौरन भाजपा ने इसे मुंगेरीलाल का हसीन सपना बताया है. यह एक प्रतिस्पर्धी की प्रतिक्रिया है. उसपर ध्यान न दें तो राहुल के वक्तव्य का मतलब साफ है कि वे मुकाबले के लिए तैयार हैं. राहुल ने कहा, 2014 में न सिर्फ यूपीए की बल्कि युवाओं की सरकार बनेगी. ऐसी सरकार जो देश को बदल देगी. मनमोहन सिंह इसके पहले कह चुके हैं कि उन्हें राहुल के नेतृत्व में काम करने पर खुशी होगी. फिर दागी जनप्रतिनिधियों को राहत देने वाले अध्यादेश को बकवास कहकर उन्होंने कैबिनेट को फैसला बदलने पर मजबूर कर दिया. इससे उनकी राजनीतिक हैसियत का भी पता लगा.

कांग्रेस या यूपीए ने उन्हें प्रधानमंत्री पर का उम्मीदवार घोषित नहीं किया है लेकिन उनके बोलने का अंदाज साफ बताता है कि अगले चुनाव में वे यूपीए की धुरी होंगे. पर उसके पहले पाँच राज्यों के चुनाव में उनकी और नरेन्द्र मोदी की सीधी मुठभेड़ होने वाली है. ये चुनाव न तो राष्ट्रीय हैं और न इनका दिल्ली की सरकार से वास्ता है, पर ये देश की मनोदशा को व्यक्त करेंगे. सेफोलॉजिस्टों के लिए इससे बड़ा सैम्पल क्या होगा? पहले लगता था कि कांग्रेस देश में नकारात्मक माहौल को पनपने से रोकने के लिए इन चुनावों के साथ ही लोकसभा चुनाव भी कराएगी. ऐसा नहीं हुआ. अब कांग्रेस के लिए ये चुनाव उतने ही महत्वपूर्ण हैं, जितने लोकसभा चुनाव. राहुल का आभा मंडल स्वयंसिद्ध और निर्विवाद है. पर यदि स्वयं उनके मन में कोई हिचक है तो उसे त्यागने का समय आ गया है. पाँच राज्यों के चुनाव में विधानसभा की 630 सीटें हैं. इनके परिणाम उस राज्य के भविष्य का फैसला करेंगे. साथ ही इन 630 सीटों से बनने वाली लोकसभा की 73 सीटों के मिजाज का पता भी लगेगा.

क्या प्रियंका भी मैदान में उतरेंगी?

कांग्रेस पार्टी को यह सफाई देनी पड़ी कि प्रियंका केवल अमेठी और रायबरेली में पार्टी का  प्रचार करेंगी, पूरे देश में नहीं. पार्टी के महासचिव अजय माकन ने आरोप लगाया कि मध्य प्रदेश में मंदिर में मची भगदड़ में 115 लोगों के मारे जाने की घटना से लोगों का ध्यान हटाने के लिए भाजपा इस तरह का दुष्प्रचार फैला रही है. उन्होंने कहा,‘‘कांग्रेस पार्टी उन सभी लोगों और समाचार चैनलों की निंदा करती है जो ऐसा कर रहे हैं.’’

राहुल को लेकर संशय कभी नहीं था. बावजूद इसके कांग्रेस के नेता अपने नम्बर बढ़ाने के लिए उन्हें प्रधानमंत्री पद देने का शोशा छोड़ते रहे हैं. पिछले साल अजीत जोगी ने राहुल को बड़ी भूमिका देने की अपील की तो हरियाणा के मुख्यमंत्री भूपेंद्र सिंह हुड्डा ने युवा नेतृत्व को आगे लाने के लिए अपने इस्तीफे की पेशकश की. हर बार सोनिया गांधी ने डॉ मनमोहन सिंह के नेतृत्व की प्रशंसा की, पर पार्टी के नेता बार-बार राहुल का नाम लेते रहे हैं. पिछले साल नवम्बर में दिल्ली के रामलीला मैदान में हुई कांग्रेस की रैली में हुड्डा समर्थक गुलाबी रंग के साफे पहन कर आए थे, ताकि समझ में आए कि रैली की सफलता के पीछे किसका हाथ है.

पिछली 27 सितम्बर को राहुल ने दागी जन-प्रतिनिधियों को बचाने वाले अध्यादेश को फाड़ कर फेंक देने की बात कहकर एक बैरियर को पार कर लिया. उनके हाल के बयानों पर गौर करें तो साफ नजर आता है कि वे पार्टी की चुनाव-रणनीति को दिशा दे रहे हैं. दिल्ली के प्रेस क्लब में अपनी बांहें समेटते हुए उन्होंने स्पष्ट किया कि उन्हें चुनौती स्वीकार है. क्या है राहुल की राजनीति? गरीब को भरपेट भोजन, शिक्षा का अधिकार और जानकारी पाने का अधिकार. कांग्रेस ने गरीबों को अधिकार देने की राजनीति का सहारा लिया है. इसके साथ ही हाल में उन्होंने इसमें युवा तत्व जोड़ा है. दलित जातियों का नाम लिया है और मुजफ्फरनगर-दंगों के संदर्भ में दूसरे दलों को दंगे भड़काने वाला साबित करके मुसलमानों को कांग्रेस की ओर खींचने की कोशिश की है.

जिम्मेदारी लेने से कतराते रहे

राहुल पिछले एक दशक से ज्यादा समय से सक्रिय राजनीति में हैं, पर राष्ट्रीय नीतियों पर विमर्श से बचते रहे हैं. सन 2011 में जब श्रीमती सोनिया गांधी स्वास्थ्य-कारणों से विदेश गईं थीं, तब आधिकारिक रूप से उन्हें पार्टी की जिम्मेदारी सौंपी गई थी. अन्ना-आंदोलन के कारण वह समय राहुल को प्रोजेक्ट करने में कोई महत्वपूर्ण भूमिका नहीं निभा सका. बल्कि उस दौरान अन्ना को गिरफ्तार करने से लेकर संसद में लोकपाल-प्रस्ताव रखने तक के सरकारी फैसलों में इतने उतार-चढ़ाव आए कि बजाय श्रेय मिलने के पार्टी की फज़ीहत हो गई. इसके बाद संसद के विशेष अधिवेशन में उन्हें शून्य-प्रहर में बोलने का मौका दिया गया और उन्होंने लोकपाल के लिए संवैधानिक पद की बात कहकर पूरी बहस को बुनियादी मोड़ देने की कोशिश की. पर उनका सुझाव को हवा में उड़ गया.

सन 2009 में यूपीए-2 की सरकार बनते वक्त प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने उन्हें मंत्री का पद देने की पेशकश की थी, पर राहुल ने उसे स्वीकार नहीं किया. पिछले साल जून से अगस्त के बीच जब राष्ट्रपति चुनाव को लेकर गहमागहमी चल रही थी और कोल-ब्लॉक आबंटन को लेकर भाजपा प्रधानमंत्री को निशाना बना रही थी, उन्हीं दिनों दिग्विजय सिंह ने सलाह दी थी कि राहुल को अब प्रधानमंत्री पद सौंप दिया जाना चाहिए. पर राहुल उसके लिए तैयार नहीं हुए. बहरहाल अब उनके पास समय नहीं है. माना जा रहा है कि यदि 2014 में कांग्रेस की सरकार बनी तो राहुल प्रधानमंत्री बनेंगे. पर सरकार नही बनी तब? पिछले साल इन दिनों विदेशी मीडिया में भारत को लेकर नकारात्मक खबरें आ रहीं थीं. टाइम मैगज़ीन की ‘अंडर अचीवर’ वाली कवर स्टारी को लेकर शोर मचा. इसमें मनमोहन सिंह की सरकार की उपलब्धियों पर टिप्पणी थी. फिर वॉशिंगटन पोस्ट की सामान्य सी टिप्पणी को लेकर सरकार ने बेहद तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त की. और इसके बाद राहुल गांधी को लेकर इकोनॉमिस्ट की साधारण स्टोरी पर चिमगोइयाँ चलने लगीं.

द राहुल प्रॉब्लम

पश्चिमी मीडिया की चिन्ता भारत के आर्थिक सुधारों पर लगा ब्रेक और कांग्रेस की क्रमशः बढ़ती अलोकप्रियता को लेकर थी. सच यह है कि इन सारी कथाओं में बाहरी स्रोतों पर आधारित अलल-टप्पू बातें थीं. खासतौर से इकोनॉमिस्ट की कथा एक भारतीय लेखिका आरती रामचन्द्रन की पुस्तक पर आधारित थी. राहुल गांधी के जीवन को ‘डिकोड’ करने वाली यह पुस्तक भी किसी अंदरूनी सूचना के आधार पर नहीं है. इकोनॉमिस्ट ने ‘द राहुल प्रॉब्लम’ शीर्षक आलेख में कहा था कि राहुल ने “नेता के तौर पर कोई योग्यता नहीं दिखाई है. और ऐसा नहीं लगता कि उन्हें कोई भूख है. वे शर्मीले स्वभाव के हैं, मीडिया से बात नहीं करते और संसद में भी अपनी आवाज़ नहीं उठाते हैं.” साल से ज्यादा हो गया क्या स्थितियों में बदलाव आया है? 1998-99 में राहुल गांधी को लेकर एक प्रकार का रहस्य था. उस वक्त वे अपेक्षाकृत युवा भी थे. एनडीए की सरकार के पाँच साल में उन्होंने कांग्रेस के पक्ष में कोई बड़ी मुहिम नहीं चलाई. सन 2004 में कांग्रेस की सरकार बनने का मौका आया, पर संकट यह था कि परिवार का कौन व्यक्ति प्रधानमंत्री बने? मनमोहन सिंह का विपरीत राजयोग काम आया. उसी तरह जैसे 1991 में पीवी नरसिम्हाराव के काम आया था. इसके बाद राहुल उत्तर प्रदेश में सक्रिय हुए. 2009 के लोकसभा चुनाव में उनका उत्तर प्रदेश का ग्राउंडवर्क झलका. इसे और बढ़ाया जाना चाहिए था. पर कांग्रेस अपने अंतर्विरोधों में घिर गई. ये अंतर्विरोध भाजपा के अंतर्विरोध भी हैं. देश में कोई भी राजनीतिक दल अभी भारतीय कॉरपोरेट सेक्टर के साथ सामंजस्य बनाने की कला विकसित नहीं कर पाया है. टू-जी मामला शुद्ध रूप से सत्ता की राजनीति की पराजय है.

राहुल बांदा से लेकर मिर्जापुर तक की दलित बस्तियों में घूमते रहे और उन्हें मीडिया से अच्छा कवरेज भी मिला, जो कुछ देर के लिए मायावती को व्यथित करने लगा था. पर राहुल की असली परीक्षा उत्तर प्रदेश के 2012 के चुनाव में हुई. मायावती के खिलाफ पैदा हुई एंटी इनकम्बैंसी का फायदा वे कांग्रेस को नहीं दिला पाए. उस वक्त जरूरत थी कि वे दुगने वेग से सामने आते, पर ऐसा नहीं हुआ. कांग्रेस ने इस बात पर ध्यान नहीं दिया कि मनमोहन सिंह जैसा अपेक्षाकृत साफ-सुथरा व्यक्ति धूल-धूसरित हो रहा है. राहुल अभी नहीं तो कभी नहीं. सोनिया गांधी ने कहा कि वे जब चाहेंगे तब फैसला करेंगे. पर फैसला केवल राहुल का ही क्यों? फैसला तो पार्टी को करना था. पर लगता है कि कांग्रेस अपने भविष्य से ज्यादा राहुल के भविष्य को लेकर चिंतित थी. सवाल केवल राहुल के पदारोहण का नहीं था. सवाल नए नेतृत्व का था, जिसकी बात अब राहुल कर रहे हैं. कहाँ है वह नेतृत्व?

साभार: प्रमोद जोशी

क्रमश:

UPA In 2014 Election

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