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रुपए की नहीं गवर्नेंस की फिक्र कीजिए

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डॉलर के मुकाबले रुपए की कीमत गिरने का मतलब कितने लोग जानते हैं? कितने लोग यह जानते हैं कि यह कीमत तय कैसे होती है? और कितने लोग जानते हैं कि इसका हमारी जिन्दगी से वास्ता क्या है? हम महंगाई को जानते हैं बाजार में चीजों की उपलब्धता को पहचानते हैं और अपनी आय को कम या ज्यादा होने की प्रक्रिया को भी समझते हैं. विश्व की मुद्राओं की खरीद-फरोख्त का बाजार है विदेशी मुद्रा बाजार. दूसरे वित्तीय बाजारों के मुकाबले यह काफी नया है और सत्तर के दशक में शुरू हुआ है. फिर भी कारोबार के लिहाज से यह सबसे बड़ा बाजार है. विदेशी मुद्राओं में प्रतिदिन लगभग चार हजार अरब अमेरिकी डालर के बराबर कामकाज होता है. दूसरे बाजारों के मुकाबले यह सबसे ज्यादा स्थायित्व वाला बाजार है. फिर भी इसमें इन दिनों हो रहे बदलाव से हम परेशान हैं. यह बदलाव लम्बा नहीं चलेगा. एक जगह पर जाकर स्थिरता आएगी. वह बिन्दु कौन सा है यह अगले कुछ दिनों में साफ हो जाएगा.


हाल में वित्त मंत्री पी चिदम्बरम ने कहा कि है कि रुपए के मुकाबले डॉलर की कीमत कुछ ज्यादा बढ़ गई है, पर वह बहुत ज्यादा नहीं है. ऐसा कई विशेषज्ञ मानते हैं कि रुपया अपनी कीमत से ज्यादा पर था. हमें यह मसला इसलिए परेशान कर रहा है क्योंकि इससे हमारा आयात महंगा हो रहा है. सबसे बड़ा आयात पेट्रोल का है. हमारे देश में लोग सोने के काफी शौकीन हैं. आयात महंगा होने से घरेलू चीजों के दाम भी बढ़ रहे हैं. पर इसका कहीं फायदा भी होगा. हम किसी चीज का निर्यात करते हैं तो उसकी कीमत कम होगी और निर्यात बढ़ेगा. दुर्भाग्य से वैश्विक मंदी के कारण हमारे सॉफ्टवेयर के निर्यात में वैसा उछाल नहीं है जैसा कुछ साल पहले तक था. चीन ने लम्बे समय तक अपनी मुद्रा युआन को डॉलर के मुकाबले काफी कमजोर बनाकर रखा. विदेशी मुद्रा विनिमय में आयात और निर्यात के अंतर या करेंट एकाउंट डेफिसिट (कैड) का काफी प्रभाव पड़ता है. हमारे पास डॉलर का जो भंडार है वह निर्यात के बजाय किसी और स्रोत से आ रहा है. विदेशों में रहने वाले भारतीय डॉलर भेज रहे हैं या विदेशी निवेशक हमारे यहाँ पैसा लगा रहे हैं. एक बात यह भी समझनी चाहिए कि डॉलर की कीमत बढ़ रही है उसके बरक्स रुपए की कीमत घट रही है. यह हमेशा नहीं रहेगा. हमारे रुपए के साथ-साथ ब्राजील के रियाल, तुर्की के लीरा, दक्षिण अफ्रीका के रैंड, इंडोनेशिया के रुपैय्या और अर्जेंटीना के पीसो का भी यही हाल है. हमारे पड़ोसी देश पाकिस्तान का 104 रुपए का एक डॉलर है. पाकिस्तान का रुपया भारत के 61 पैसे का हो गया है.


मुद्रा की कीमत कम होने का मतलब देश का कमजोर होना नहीं है, पर कारण देश के भीतर भी हैं. मसलन हमारे यहाँ सोना खरीदने का शौक है. यह सोना गहनों की शक्ल में पड़ा रहता है. काफी लोग देश के बाहर पूँजी ले जाते हैं. इसके लिए वे डॉलर या दूसरी कोई हार्ड करेंसी खरीदते हैं. तीसरे हम अपने उद्योग धंधों को ठीक से नहीं चला पा रहे हैं, जिसके कारण आयात ज्यादा है, निर्यात कम. निर्यात न भी करते हम देश की खपत की चीजें बनाते तो विदेशी या देशी निवेशक कारोबार में पैसा लगाते. इससे समृद्धि बढ़ती और विदेशी मुद्रा भी बढ़ती. वास्तव में विदेशी मुद्रा का संकट मूल समस्या नहीं है. समस्या देश की राजनीति. सन 2004 में यूपीए सरकार के आने पर भारतीय राजनीति ने मान लिया कि ‘इंडिया शाइनिंग’ बेकार का नारा था. यूपीए ने 2004 से 2009 तक आर्थिक उदारीकरण के काम को किया भी, पर 2009 के बाद इसे टालना शुरू कर दिया. संयोग से इसी दौरान वैश्विक मंदी भी शुरू हो गई. इन सबका मिला-जुला परिणाम हमारे सामने है.


जिस तरह डॉलर की कीमत में बदलाव वैश्वीकरण की देन है उसी तरह प्रत्यक्ष विदेशी निवेश भी वैश्वीकरण की देन है. भारत में ही नहीं दुनिया भर में 1990 के दशक से इसका नाम ज्यादा सुना जा रहा है. वैश्विक पूँजी को विस्तार के लिए नए इलाकों की तलाश है, जहाँ से बेहतर फायदा मिल सके. अविकसित इलाकों को पूँजी की तलाश है जो आर्थिक गतिविधियों को बढ़ाए, ताकि रोजगार बढ़ें. बहस भी इसी बात को लेकर है कि रोजगार बढ़ते हैं या नहीं. बहरहाल सन 2009 में यूपीए-2 की सरकार के दुबारा आने के बाद उम्मीद थी कि अब आर्थिक उदारीकरण का चक्का तेजी से चलेगा. यानी प्रत्यक्ष कर, बैंकिग, इंश्योरेंस, जीएसटी, भूमि अधिग्रहण और प्रत्यक्ष विदेशी निवेश से जुड़े मसले निपटाए जाएंगे. पर सरकार घपलों-घोटालों की राजनीति में फंस गई और दूसरे पश्चिमी देश मंदी में आने लगे जिसके कारण पूँजी का विस्तार थमने लगा. हमने उदारीकरण का मतलब घोटाले मान लिया, जबकि ये घोटाले समय से सुधार न हो पाने की देन थे.


दूसरी ओर सरकार ने लोक-लुभावन रास्ता पकड़ा है. इस बात को लेकर अब भी विवाद है कि सरकार जिस खाद्य सुरक्षा कानून को लागू करने जा रही है उसका फायदा मिलेगा या नहीं. पिछले साल प्रणव मुखर्जी के राष्ट्रपति बनने के पहले तक सुधारों की गाड़ी डगमगा कर चल रही थी.फिर सोनिया गांधी ने साफ किया कि आर्थिक सुधारों का काम पूरा होगा. इस दिशा में पहला कदम था सिंगल ब्रांड रिटेल में 51 प्रतिशत विदेशी निवेश का फैसला. यह फैसला एक साल पहले ही लागू होता, पर ममता बनर्जी के विरोध के कारण रुका पड़ा था. पिछले साल दिसम्बर में सरकार ने निवेश के रास्ते में आने वाली अड़चनों को दूर करने के लिए बड़ी परियोजनाओं को जल्द मंजूरी देने को लेकर मंत्रिमंडल की निवेश समिति गठित करने और औद्योगीकरण को बढ़ावा देने के लिए भूमि अधिग्रहण विधेयक के मसौदे को मंजूरी दी थी. पिछले महीने 16 जुलाई को सरकार ने एफडीआई के लिए कुछ नए कदमों की घोषणा की है. इसमें दूरसंचार, बीमा और रक्षा उद्योग में निवेश की सीमा बढ़ाने का फैसला शामिल है. पेट्रोलियम एवं नेचुरल गैस, पावर एक्सचेंज, कॉमोडिटी एक्सचेंज और स्टॉक एक्सचेंज में ऑटोमेटिक रूट से 49 फीसदी एफडीआई की अनुमति का फैसला भी है. अनेक ब्रांड वाले खुदरा व्यापार के मानदंडों को उदार बनाया गया है. नागरिक उड्यन, एयरपोर्ट, मीडिया और फार्मा के क्षेत्रों में निवेश बढ़ाने पर कोई फ़ैसला फिर भी नहीं हो पाया. इऩफ्रास्ट्रक्चर का काफी काम अधूरा पड़ा है. संसद में अनेक विधेयक अटके पड़े हैं. भारत दुनिया में हथियारों का सबसे बड़ा आयातक है. हमारा रक्षा उद्योग इतना विकसित नहीं कि सेना की जरूरतों को पूरा कर सके. रक्षा क्षेत्र में फिलहाल 26 फीसदी विदेशी निवेश की अनुमति है, जबकि उससे आगे के लिए कैबिनेट कमेटी ऑन सिक्योरिटी की अनुमति अनिवार्य होगी. हाल में सिंधुरक्षक पनडुब्बी के डूबने के बाद यह बात सामने आई कि हमारा पनडुब्बी बेड़ा पाकिस्तानी बेड़े से भी कमजोर है. सेना का आधुनिकीकरण सरकारी अनिश्चय और ढीलेपन का शिकार है. सरकारी मशीनरी आज भी आपत्तियाँ लगाने को कौशल मानती है. कोई वजह है कि जितना विदेशी पूँजी निवेश हम भारत में लाते हैं उससे ज्यादा भारतीय पूँजी बाहर जाती है. हमें बैठकर विचार करना चाहिए कि आर्थिक संवृद्धि की हमें जरूरत है भी या नहीं. वर्तमान समस्या के पीछे अंतरराष्ट्रीय परिस्थितियाँ भी हैं, पर उससे ज्यादा स्थानीय अकुशलता और ढीलापन जिम्मेदार है. उसे दूर किया जाना चाहिए.


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