Menu
blogid : 11302 postid : 582493

राष्ट्रीय संबोधनों का राजनीतिक तमाशा

Hindi Blog
Hindi Blog
  • 91 Posts
  • 6 Comments

साल 2001 में मुख्यमंत्री बनने के बाद से नरेंद्र मोदी राज्यस्तरीय स्वतंत्रता दिवस समारोह जिला मुख्यालयों पर आयोजित करते आ रहे हैं.


इस बार यह समारोह कच्छ जिला मुख्यालय भुज के लालन कॉलेज कैंपस में हुआ. वे पहले भी प्रधानमंत्री के स्वतंत्रता दिवस भाषणों की समीक्षा इस प्रकार करते रहे हैं, जैसी इस बार की. पर इस बार उन्होंने ख़बरदार करके यह हमला बोला है.


क्या यह एक नई परंपरा पड़ने जा रही है? केंद्र सरकार और केंद्रीय राजनीतिक शक्ति के साथ असहमतियाँ आने वाले समय में कम नहीं बल्कि ज़्यादा ही होंगी. ऐसे में क्या स्वतंत्रता दिवस के संबोधनों को राजनीतिक संबोधनों के रूप में स्वीकार किया जाना चाहिए. लेकिन लगता है कि लालकिले की प्राचीर से स्वतंत्रता दिवस का संबोधन राजनीति से नहीं बच पाएगा.


मनमोहन सिंह यों भी सार्वजनिक सभाओं के लिहाज़ से अच्छे वक्ता नहीं हैं. ग्रासरूट राजनीति का उनका अनुभव नहीं है. उनके मुकाबले नरेंद्र मोदी शुरू से जमीन पर काम करते रहे हैं. उनके पास जनता को लुभाने वाले मुहावरे और लच्छेदार भाषा है. वे खांटी देसी अंदाज़ में बोलते हैं.


हमला कांग्रेस पर है

मनमोहन सिंह भी उर्दू के अच्छे जानकार हैं. उन्हें शायरी की अच्छी समझ है. वे अपना भाषण खुद लिख सकते हैं. पर प्रधानमंत्री होने के नाते उन्हें सरकारी शब्दावली में बात कहनी होती है. सबसे बड़ी बात यह है कि वो व्यवस्था की बात करते हैं. वो सरकार हैं.

नरेंद्र मोदी की तरह उन्हें किसी की बखिया उधेड़नी नहीं होती है. बखिया को उधड़ने से बचाना होता है. यह मुश्किल काम है, खास तौर से उस वक्त में जब सरकार कई तरफ़ से घिरी हो.


सच यह भी है कि प्रधानमंत्रियों के स्वतंत्रता दिवस संबोधन खुद अंतर्विरोधों के शिकार है. जनता न तो उन्हें पवित्र भाव से सुनती है और न इन बातों पर यकीन करती है.


किसी न किसी कारण से प्रधानमंत्री सबसे भेद्य यानी ‘वलनरेबल’ बन गए हैं. मोदी ने कहा, ‘प्रधानमंत्री जी आपका नाम अब सबसे ज्यादा बार तिरंगा फहराने वाले प्रधानमंत्रियों में शामिल हो गया है. फिर भी आप वही बोल रहे हैं जो 60 साल पहले नेहरू बोला करते थे. सवाल यह है कि इन 60 सालों में आपने क्या किया?’ पर यह सवाल मनमोहन सिंह नहीं कांग्रेस से है.


स्वतंत्रता दिवस पर राजनीति?

अगले साल होने वाले आम चुनाव से पहले, इस आखिरी भाषण में मनमोहन सिंह का खासा ज़ोर खाद्य बिल, मिड-डे मील जैसी सरकारी योजनाओं पर रहा.


देश की जनता ने दोनों भाषणों को किस रूप में लिया इसका पता लगाने वाली कोई मशीनरी हमारे पास नहीं है. काफी लोगों को यह तमाशा ही लगा होगा. सवाल इतना है कि मोदी ने क्या मर्यादा की रेखा लांघ दी? सूचना प्रसारण मंत्री मनीष तिवारी का कहना है कि भारत के प्रधानमंत्री जब लाल किले से बोलते हैं तो वह पार्टी नेता का बयान नहीं होता.


आज़ादी के 66 साल बाद यह पहली बार हो रहा है कि कोई टीका टिप्पणी कर रहा है. क्या ऐसे राष्ट्रीय अवसर को राजनीति का विषय बनाना चाहिए? पर सवाल यह भी है कि क्या प्रधानमंत्रियों के वक्तव्यों में राजनीति नहीं होती रही है?


भारत सरकार के पूर्व प्रधान सूचना अधिकारी आई राम मोहन राव ने देश के कई प्रधानमंत्रियों को स्वतंत्रता दिवस के भाषणों और उनकी पृष्ठभूमि तैयार होते देखा है. उनके अनुसार जवाहर लाल नेहरू फ़ौरी तौर पर तात्कालिक समझ से बोलते थे.


इंदिरा गांधी अपना भाषण तैयार करती थीं, लेकिन उनके सूचना सलाहकार एचवाई शारदा प्रसाद उसे फाइन ट्यून कर देते थे. फिर अलग-अलग विभागों द्वारा अपने-अपने पॉइंट्स भेजने का चलन शुरू हुआ. विश्वनाथ प्रताप सिंह ने आरक्षण नीति की घोषणा स्वतंत्रता दिवस के भाषण से की. धीरे-धीरे सरकारी नीतियों की घोषणाएं इन भाषणों से होने लगीं.


किसी न किसी वजह से प्रधानमंत्रियों के भाषणों का वैसा पवित्र रूप नहीं रहा जैसा शुरूआती वर्षों में था. नरेन्द्र मोदी ने इन अंतर्विरोधों को खोला है. मोदी का जवाबी भाषण शुद्ध रूप से राजनीति है. उनके भाषण में सरकार पर हमले ही हमले हैं. ये हमले राजनीति की विडंबनाओं की ओर भी इशारा करते हैं.


नागरिकों की दिलचस्पी भी घटी

एक समय था जब किसी फ़िल्म के बीच जवाहर लाल नेहरू या महात्मा गांधी की तस्वीर नजर आती थी तो तालियाँ बजती थीं. प्रधानमंत्री के 15 अगस्त के भाषण को सुनने के लिए लोग अपने घरों में रेडियो के इर्द-गिर्द बैठे इंतजार करते थे. आज वैसा नहीं है.


लोगों की दिलचस्पी प्रधानमंत्री के भाषण में कम हुई है, जबकि संचार के साधन बेहतर हुए हैं. शायद स्वतंत्रता के फौरन बाद नागरिकों के मन में राजनीति को लेकर पवित्रता का भाव था, पर व्यावहारिक राजनीति का तकाज़ा कुछ और है.


स्वतंत्रता दिवस पर प्रधानमंत्री को देश की जनता से रूबरू होने का मौका मिलता है. अपने दर्शन, योजनाओं और भविष्य की परिकल्पनाओं को वे सामने रखते हैं. पर यह तक़रीर धीरे-धीरे रस्म अदायगी में बदलती गई.


अटल बिहारी जैसे कुशल वक्ता के स्वतंत्रता दिवस भाषण उतने आकर्षक नहीं होते थे, जितने आक्रामक भाषण कांग्रेसी सरकारों की आलोचना में होते थे. अटल बिहारी का एक स्वतंत्रता दिवस भाषण तो 25 मिनट में ही खत्म हो गया.


वरिष्ठ पत्रकार प्रभाष जोशी ने कहीं लिखा था, “आप उनसे सहमत रहे हों या असहमत, पहले अटल बिहारी वाजपेयी के भाषण सुनने में मजा आता था. वे अपने वाक् कौशल से राजनीति और राष्ट्रीय घटनाओं को सुनने और विचार के लायक बना देते थे. लेकिन जब से वे प्रधानमंत्री हुए हैं, लगता है सरस्वती उनका साथ छोड़ गई है.”


अपने भाषण में नरेंद्र मोदी ने प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह पर कई बार हमले किए. लाल किले से 15 अगस्त को हुए उनके दो भाषण और अनगिनत राजकीय समारोहों में हुए नीरस उदबोधन, कहा जा सकता है कि प्रधानमंत्री होने के गुरुतम दायित्व से दबे हुए थे.’


क्या प्रधानमंत्री पद का दायित्व भाषण को नीरस बनाता है? इसकी एक वजह ये है कि अब ये भाषण लगभग पूरी तरह सरकारी बाबुओं के हवाले हैं. इनमें सरकारी उपलब्धियाँ गिनाने में दिलचस्पी ज़्यादा होती है, जनता से संवाद की इच्छा कम. यह दौर जनता के मन में सरकारी व्यवस्थाओं के प्रति अरुचि का है. नरेन्द्र मोदी इसका लाभ उठाना चाहते हैं.


मोदी ने कहा, ‘एक तरफ मीडिया कह रहा है कि यह प्रधानमंत्री का आखिरी भाषण है, और दूसरी तरफ वह कह रहे हैं कि अभी हमें और फासला तय करना है. कौन से रॉकेट में बैठकर फासला तय करोगे प्रधानमंत्री जी. देश को गरीबी के गर्त में डुबो दिया है.’


राष्ट्रपति के भाषण का सहारा लिया

उन्होंने राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी के भाषण को प्रधानमंत्री पर हमले का हथियार बनाया.

उन्होंने कहा, ‘राष्ट्रपति कह रहे हैं कि हमारी सहन शक्ति की सीमा होनी चाहिए. पर यह सीमा शासक ही तो तय करेंगे. चीन आकर हमारी सीमाओं पर अड़ंगा डाले, इटली के सैनिक केरल के मछुआरों को मार दें, पाकिस्तान के सैनिक हमारे जवानों के सिर काट लें, तब जाकर हमें चिंता होती है कि सहनशीलता की सीमा कौन सी है? राष्ट्रपति जी आपकी चिंता से मैं भी अपना सुर मिलाता हूं.’


मोदी ने पाकिस्तान, चीन, सेना, भ्रष्टाचार, विकास और नेहरू परिवार वगैरह-वगैरह के अपने पुराने फ़ॉर्मूले का ही इस्तेमाल किया. हाँ नया था तो यह मौका, जिसे उन्होंने जान-बूझकर चुना.


मोदी चाहते हैं कि प्रधानमंत्री को कड़ा संदेश दें. उन्होंने कहा सेना का हौसला बुलंद हो इसके लिए देश पीएम से थोड़ी कड़ी भाषा की अपेक्षा करता है. प्रधानमंत्री जी लाल किले से बोले. लेकिन मैं अकाल पीड़ित कच्छ से बोल रहा हूं, जहाँ से आवाज़ पाकिस्तान में पहले सुनाई देती है और दिल्ली में बाद में.’


परिवार पर हमला

सवाल उठ रहे हैं कि क्या प्रधानमंत्रियों के वक्तव्यों में राजनीति नहीं होती रही है?

मोदी की मंच कला अच्छी है और वे समयानुकूल स्क्रिप्ट तैयार कर लेते हैं. जनता पर असरकारी मुहावरे और रूपक उनके पास हैं. उन्होंने कहा जैसे पहले टीवी सीरियल आते थे वैसे अब करप्शन के सीरियल आते हैं. पहले भाई-भतीजावाद के सीरियल का दौर था. फिर नया सीरियल आया मामा-भांजे का और अब आगे बढ़ते हुए सास-बहू और दामाद के सीरियल आते हैं.


कांग्रेस दुर्ग के कमजोर द्वारों से मोदी अच्छी तरह परिचित हैं. नेहरू-गांधी परिवार पर हमला गैर-कांग्रेस राजनीति का महत्वपूर्ण मंत्र है. मोदी ने कहा, ‘अरे आप प्रधानमंत्री हैं, लेकिन लाल किले पर अपने भाषण में आप सिर्फ एक परिवार की भक्ति में डूब गए. नेहरू और इंदिरा का जिक्र करते हुए क्या अच्छा नहीं होता अगर आप सरदार पटेल को भी याद करते.


लाल बहादुर शास्त्री का भी जिक्र कर देते. वह भी हमारे पीएम थे. जय जवान जय किसान का नारा दिया था.’ पीवी नरसिंह राव का जिक्र भी नहीं होता. वे कांग्रेस के नेता थे. राष्ट्रीय अवसरों पर मोरारजी देसाई, विश्वनाथ प्रताप सिंह और अटल बिहारी वाजपेयी जैसे ग़ैर-कांग्रेस नेताओं का जिक्र नहीं होता.


राष्ट्रीय अवसरों के राजनीतिक दोहन की यह परम्परा अच्छी नहीं है. नरेन्द्र मोदी और भारतीय जनता पार्टी के लिए भी यह बात दूरगामी लाभ की साबित नहीं होगी. पर यह भी समझा जाना चाहिए कि कांग्रेस ने सायास या अनायास नरेन्द्र मोदी पर हमले बोलकर ही उन्हें नेता बनाया है.


अब वह उसकी उपेक्षा नहीं कर सकती. आने वाले समय में मोदी ऐसे किसी और मौके पर हमला बोलें तो आश्चर्य नहीं.


साभार: प्रमोद जोशी

modi vs pm

Read Comments

    Post a comment

    Leave a Reply