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तमाशा देखने वालो, तमाशा खुद न बन जाना

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ऐसा लगता है जैसे उत्‍तराखंड के तीर्थयात्री, सैलानी एवं पर्यटक ही नहीं, पूरा देश ही अनाथ हो चुका है। उत्‍तराखंड की विभीषिका ने तो उसे केवल रेखांकित किया है।

इस देश में साधु-संतों की जमात लाखों में है, भागवताचार्य भी हजारों की संख्‍या में हैं, रामायणियों की तादाद कोई कम नहीं।

टेलीविजन पर दिखाई देने वाले कुल करीब दो सैंकड़ा चैनल्‍स में से एक चौथाई पर ऐसे ही धार्मिक तत्‍वों का आधिपत्‍य देखा जा सकता है, जो चौबीसों घण्‍टे धर्म का मर्म समझा कर या यूं कहें कि उसकी दुहाई देकर अपनी दुकान बेहतरीन तरीके से चला रहे हैं।

इसी अनुपात में मठाधीश, उनके मठ, मंदिर और आश्रमों की भरमार है।

बात-बात पर फतवा जारी करने वाले मुल्‍ला तथा मौलवियों से लेकर प्रतिष्‍ठित मस्‍जिदों की खासी संख्‍या है और ईसाई मिशनरीज भी हर गली व कूचे में मिल जायेंगे।

सामाजिक व धार्मिक संस्‍थाएं इतनी हैं, जितने कि सरकारी शिक्षण संस्‍थान नहीं होंगे। और ये सब भी अपनी-अपनी कमाई के लिए टेलीविजन पर पूरी तरह सक्रिय हैं।

इस सब के बावजूद उत्‍तराखंड में आई भयंकर आपदा के शिकार लोगों की मदद को कोई सामने नहीं आया।

बेशक ऐसी आपदाओं से निपटने की जिम्‍मेदारी सरकारों की है और उन्‍हें इसके माकूल इंतजाम करने चाहिए लेकिन मानवता के नाते तथा धार्मिक एवं सामाजिक कर्तव्‍यों के चलते क्‍या इनकी कोई जिम्‍मेदारी नहीं बनती।

यही हाल उन नामचीन उद्योगपतियों का है जो आए दिन विश्‍व के सर्वाधिक पैसे वालों की सूची में नाम दर्ज कराकर देश को धन्‍य करते हैं।

उत्‍तराखंड की आपदा का जो सच अब तक सामने आ पाया है, वह वास्‍तविकता का दसवां हिस्‍सा भी नहीं। हजारों लोग वहां जान गवां चुके हैं और हजारों की जान सांसत में फंसी है। जो कुछ और जितना कुछ हो पा रहा है, वह सिर्फ सेना व आईटीबीपी के जवान कर रहे हैं। नेताओं ने तो देश को पहले ही भगवान भरोसे छोड़ रखा है। वह अब देश के रक्षक नहीं, भक्षक बन चुके हैं। रुपया रसातल में जाए या आम आदमी, उन्‍हें इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। उन्‍हें फर्क तब पड़ता है जब उनकी राजनीति प्रभावित होती है।

देश के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने अपनी अघोषित बॉस सोनिया गांधी के साथ उत्‍तराखंड की पहाड़ियों का हवाई सर्वेक्षण करके कर्तव्‍य की इतिश्री कर ली। इसके बाद सोनिया गांधी ने राहत सामग्री और राहुल गांधी के साथ दिल्‍ली में अपना फोटो खिंचवाकर देश की जनता को इस आशय का संदेश दे दिया कि राहत व राहुल दोनों उनके पास मौजूद हैं।

इससे पहले राहुल गांधी स्‍पेन में अपने 43वें जन्‍मदिन का जश्‍न खास सिपहसालारों के साथ मना रहे थे। देश में जब उनकी गुमशुदगी को लेकर चर्चे होने शुरू हो गऐ तब वह राहत सामग्री के साथ नमूदार हुए। झण्‍डा फहराकर राहत सामग्री तो विदा कर दी लेकिन खुद दिल्‍ली में ही रह गये। शायद इसलिए कि उत्‍तराखण्‍ड में तो उनकी ही सरकार है।

गृहमंत्री के रूप में कार्यरत सुशील कुमार शिंदे वहां जा चुके हैं और राज्‍य तथा केन्‍द्र सरकार के बीच बेहतर समन्‍वय स्‍थापित कराकर राहुल, सोनिया एवं प्रधानमंत्री को जिम्‍मेदारी से मुक्‍त कर चुके हैं।

जहां तक सवाल विपक्षी दलों का है तो वह 2014 में सत्‍ता के सोपान पर स्‍थापित होने के सपने देखने में इस कदर व्‍यस्‍त है कि उन्‍हें कुछ नहीं सूझ रहा। सब अपने-अपने मोर्चों के खयाली पुलाव बनाकर मुंगेरी लाल के हसीन सपनों की दास्‍तां सार्थक करने में लगे हैं।

ऐसा लगता है जैसे उत्‍तराखंड के तीर्थयात्री, सैलानी एवं पर्यटक ही नहीं, पूरा देश ही अनाथ हो चुका है। उत्‍तराखंड की विभीषिका ने तो उसे केवल रेखांकित किया है।

राजनीतिक हो या धार्मिक, सामाजिक हो या आध्‍यात्‍मिक, सबकी अपनी-अपनी सत्‍ताएं हैं । उन पर काबिज तत्‍वों को अपने ”अधिकारों” का तो पूरा भान है और उनके लिए दावे-प्रतिदावे भी वो लोग करते रहते हैं परंतु जब बात आती है कर्तव्‍य निभाने की तो बगलें झांकने लगते हैं। तब यह लोग परस्‍पर एक-दूसरे को कर्तव्‍यबोध कराने के पुनीत कार्य में डूब कर उससे अलग रहने का नायाब तरीका अपना लेते हैं।

इस दौरान एक खबर पढ़ने को मिली कि उत्‍तराखंड के आपदा पीड़ितों ने एक आईएएस को इसलिए पीट डाला क्‍योंकि वह उनकी मदद करने के स्‍थान पर ज्ञान बघार रहा था।

यह खबर भी उसी तरह का एक संकेत है जैसा संकेत प्रकृति बहुत समय से ”ग्‍लोबल वार्मिंग” के रूप में देती रही है लेकिन सत्‍ता के मद में चूर हमारे राजनीतिक, धार्मिक व सामाजिक सत्‍ताधीश किसी संकेत को समझना नहीं चाहते।

समस्‍या चाहे आतंकवाद की हो या नक्‍सलवाद की, प्राकृतिक आपदा से उपजी हो या अप्राकृतिक कृत्‍यों से, सभी के मूल में हमारे अपने कुकृत्‍य कहीं न कहीं मौजूद मिलेंगे। जरूरत है तो आंखें खोलकर देखने की। यह सब भी एक दूसरे किस्‍म की ग्‍लोबल वार्मिंग है।

तभी तो यह हाल है कि मेंगो पीपुल कहलाने वाले आम आदमी के मन से पुलिस, प्रशासन का डर निकलता जा रहा है। नेताओं के प्रति जबर्दस्‍त घृणा का भाव पैदा हो गया है। धर्म की परिभाषा बदल चुकी है और सामाजिक कार्य मात्र अखबारों में फोटो खिंचवाने का जरिया बन गए हैं।

उत्‍तराखंड के आपदाग्रस्‍त लोगों से मुंह मोड़कर अपनी-अपनी राजनीतिक, धार्मिक व सामाजिक दुकान चलाने वाले आज चाहे यह सोच बैठे हों कि वह कभी किसी विपत्‍ति में नहीं पड़ेंगे लेकिन जल्‍दी ही उनकी यह गलतफहमी दूर होने वाली है।

ऐसा कहने की वजह भी है, और वह वजह है लोगों के मन में जड़ जमाता जा रहा आक्रोश। उनके अंदर उपज रही घृणा।

यह आक्रोश व घृणा ऐसे लोगों के लिए है जिन्‍हें वह अब तक अपना भाग्‍य विधाता मानते चले आ रहे थे। जिनकी वह पूजा करते आ रहे थे। जिनके प्रति उनके मन में श्रद्धा का भाव था।

उत्‍तराखंड में केदारनाथ का विग्रह चाहे प्राकृतिक आपदा की चपेट में आने से बच गया हो, चाहे वह खंडित न हुआ हो पर लोगों की उन सामर्थ्‍यवान तत्‍वों के प्रति भावनाएं जरूर खंडित हुई हैं। वह आहत हैं ऐसी व्‍यवस्‍था से जो केवल सत्‍ताधीशों की सुख-सुविधा के लिए है। वह आहत हैं ऐसे व्‍यवस्‍थापकों से जो व्‍यवस्‍था के सभी अधिकारों का सुख समेटे बैठे हैं और उसका अंशमात्र जनता को देना नहीं चाहते।

हो सकता है कि व्‍यवस्‍था से अपना हक छीनने में जनता को और कुछ साल लग जाएं लेकिन सच मानिये कि उसकी शुरूआत हो चुकी है।

उत्‍तराखंड जैसी प्राकृतिक आपदाओं से मिलने वाले कटु अनुभव इसमें मील का पत्‍थर साबित होंगे।

आज उत्‍तराखंड के पीड़ितों के करुण क्रंदन का तमाशा देखने वाले, कल यदि खुद ऐसा कोई तमाशा बन जाएं तो आश्‍चर्य नहीं होना चाहिए क्‍योंकि नियति कुछ ऐसे ही संकेत दे रही है।

साभार : सुरेंद्र चतुर्वेदी

उत्तराखंड आपदा


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