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और अब आपदा की राजनीति

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उत्तराखंड की आपदा को देखते हुए भाजपा ने यूपीए सरकार के खिलाफ अपना जेल भरो आंदोलन स्थगित कर दिया है। यह आंदोलन 27 मई से 2 जून तक चलना था, पर छत्तीसगढ़ में माओवादी हमले की वजह से स्थगित कर दिया गया था। गोवा में तय हुआ कि इसे जून में चलाया जाएगा। उधर दिग्विजय सिंह ने नरेन्द्र मोदी की उत्तराखंड यात्रा पर उँगली उठाई है। उसके पहले कांग्रेस की ओर से किसी ने तंज मारा था कि गुजरात ने इस आपदा के लिए सिर्फ दो करोड़ रुपए दिए। जवाब में भाजपा की प्रवक्ता मीनाक्षी लेखी ने कहा, जनता जानना चाहती है कि आज जब उत्तराखंड में राष्ट्रीय आपदा आई है, कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी कहां हैं। साथ में यह भी कहा कि विदेश में हैं तो बेहतर हैं वहीं रहें। वैसे भी राष्ट्रीय आपदा या बड़ी घटनाओं के समय राहुल गांधी देश में मौजूद नहीं रहते हैं। दिल्ली गैंगरेप के वक्त भी नहीं थे। मुख्तार अब्बास नकवी ने आरोप लगाया कि यूपीए सरकार के मंत्रियों की गलत बयानबाजी के कारण राहत कार्यों में बाधा आ रही है।


इस बयानबाज़ी की चपेट में गृहमंत्री सुशील कुमार शिंदे का यह बयान भी आ गया कि तालमेल न होने से ठीक से राहत का काम नहीं हो पा रहा है। इस बयान को भाजपा ने निशाने पर ले लिया। मुख्तार अब्बास नकवी ने कहा, शिंदे को साफ करना चाहिए कि किन-किन एजेंसियों में तालमेल नहीं है क्योंकि केंद्र व उत्तराखंड में तो कांग्रेस की ही सरकारें हैं। उत्तराखंड के पूर्व मुख्यमंत्री भगत सिंह कोश्यारी ने आरोप लगाया कि दिल्ली में उनकी कोशिश से जुटाई गई राहत सामग्री को उत्तराखंड सरकार ने लेने से इंकार कर दिया। उनके निजी सहायक के अनुसार दिल्ली से तीन ट्रक सामान उत्तराखंड निवास भेजा गएया लेकिन अफसरों ने कहा कि राहत के लिए सिर्फ चेक या कैश में पैसा ही दे सकते हैं।

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उत्तराखंड की आपदा की खबरें दुनिया भर के मीडिया ने प्रसारित की हैं। चीन की समाचार एजेंसी शिनह्वा ने इसे प्रसारित किया है। अमेरिकी वॉल स्ट्रीट जरनल, वॉशिंगटन पोस्ट, इंग्लैंड के गार्डियन से लेकर पाकिस्तानी आब्जर्बर और डॉन ने इस आपदा को कवर किया है। वहाँ इस प्रकार की राजनीतिक टिप्पणियों का मज़ाक बनता है। दिल्ली के एक अखबार ने नरेन्द्र मोदी की ओर से गुजरात के यात्रियों का बहर निकालने का विवरण दिया है, जिसके अनुसार गुजरात सरकार के अनेक वरिष्ठ अधिकारी दिल्ली और देहरादून में तैनात कर दिए गए हैं। इसके अलावा एक पूरी मेडिकल टीम भेजी गई है। चार बोइंग विमान भेजे गए हैं। इसके अलावा 80 टयोटा इनोवा मँगाई गई है। 25 लक्ज़री बसें गुजराती यात्रियों को निकालने का काम कर रहीं हैं। इस पर कांग्रेस के कुछ नेताओं ने टिप्पणी की कि यह सिर्फ गुजरातियों के लिए है। यह भी सच है कि नरेन्द्र मोदी अपने जिस माइक्रो मैनेजमेंट के लिए प्रसिद्ध हैं उसे इस आपदा के मौके पर साबित करना चाहते हैं। पर कुल मिलाकर हमें आपदा की इस घड़ी में नकारात्मक बातों का शिकार नहीं होना चाहिए।


आपदा की इस घड़ी में हमारा परिचय ऐसे व्यक्तियों और संस्थाओं से हो रहा है, जो निस्वार्थ भाव से सेवा में लगे हैं। दूसरों को बचाने में अपनी जान दे रहे हैं। इसके विपरीत खबरें आ रहीं हैं कि जिन होटलों में 500 रुपए रोज़ का कमरा मिलता था वे 3000 रुपए माँग रहे हैं। पानी की एक बोतल के 100 रुपए ले रहे हैं, चार रोटी के 200 रुपए माँग रहे हैं। यही नहीं लाशों के शरीर से गहने निकाल रहे हैं। चोर-उचक्के सक्रिय हैं। आपदा के ऐसे मौकों पर रेप की शिकायतें भी आती हैं। बिस्कुट से लेकर परिधान, दवाएं तक आठ-दस गुना तक दामों पर मिल रहीं हैं। इसलिए ज़रूरी है कि सबसे पहले राज-व्यवस्था को स्थापित किया जाए। जैसे ही व्यवस्था खत्म होती है अराजकता और आपराधिक प्रवृत्तियाँ हावी हो जाती हैं। उत्तराखंड में भी यह देखने को मिल रहा है।


नरेन्द्र मोदी ने कहा है कि उत्तराखंड सरकार चाहे तो हम केदारनाथ मंदिर के उद्धार का काम अपने हाथ में लोने को तैयार हैं। यह बात भी प्रचारात्मक ज्यादा लगती है। इस वक्त सबसे बड़ी ज़रूरत फँसे हुअ लोगों को निकालने की है। 24 जून के बाद फिर से बारिश होने की चेतावनी मौसम विभाग ने दी है। इसलिए तेजी से यात्रियों को निकालने का काम होना चाहिए। चूंकि हमारी नज़र केवल बाहर से आए यात्रियों पर है इसलिए हम स्थानीय निवासियों की तकलीफ के बारे में जानते भी नहीं। क्या हुआ उन गाँवों को जो पानी में बह गए? उनके खेतों का, पशुओं का क्या हुआ? केदारनाथ यात्रा के काम में तकरीबन चार हजार खच्चर लगते थे। उनमें से ज्यादातर मारे गए। यों भी मंदिर अब दो-एक साल बंद रहेगा। इन खच्चरों के सहारे जिनकी रोजी चलती थी उनका क्या होगा? बच्चों के स्कूलों का क्या होगा? ऐसे तमाम सवालों का जवाब हमें खोजना होगा।


चार धाम यात्रा के अलावा सिखों के तीर्थ हेमकुंड साहब की यात्रा भी चल रही थी। जो सूचना है उसके अनुसार हेमकुंड साहब के गुरद्वारे को नुकसान नहीं पहुँचा है। गुरद्वारे की इमारत बीसवीं सदी में बनी है और अपेक्षाकृत वैज्ञानिक तरीके से बनी है। अब चारों धाम के वैज्ञानिक पद्धति से संरक्षण की ज़रूरत है। भूगर्भवेत्ता वीके जोशी के अनुसार केदारनाथ मंदिर समेत पूरी घाटी चौदहवीं से सत्रहवीं सदी तक बर्फ में पूरी तरह दबी रही। पिछले हजार साल में कई भूकम्प इस इलाके में आए, पर यह मंदिर अपनी जगह स्थिर रहा। इसे बनाने वाले आधुनिक विशेषज्ञ नहीं थे, पर उन्होंने इसके लिए सुरक्षित जगह तलाशी थी। इस बार जिन इमारतों को भारी नुकसान हुआ है वे सब पिछले तीस-चालीस साल में बनीं हैं। धर्मस्थलों के आर्थिक-व्यावसायिक दोहन से ऐसा हुआ है। इस बात पर विचार किया जाना चाहिए कि यदि ये इलाके भारी भीड़ का बोझ उठाने में असमर्थ हैं तो परमिट व्यवस्था शुरू की जाए ताकि यहाँ आने वालों की तादाद पर नियंत्रण हो सके।


कुछ साल पहले शोध परिणाम आए थे कि केदारनाथ के पास के चोराबारी ग्लेशियर पर ग्लोबल वॉर्मिंग का असर पड़ा है। इस घटना का ग्लोबल वॉर्मिंग से कोई रिश्ता है या नहीं कहना मुश्किल है। पर केदारनाथ सहित पूरे उत्तराखंड में पानी के साथ मिट्टी और पत्थरों के आने, नदियों के किनारों के बुरी तरह कटने और भूस्खलन के कारण कुछ सवाल ज़रूर खड़े होते है। ऐसी रिपोर्टें हैं कि गोमुख के पास पर्यावरण प्रदूषण बढ़ रहा है। भारतीय उपमहाद्वीप के तापमान में चार डिग्री का इज़ाफा हुआ है। इसके कारण यहाँ के ग्लेशियर पिघल रहे हैं। पहाड़ों के निचले इलाकों में अंधाधुंध निर्माण हो रहा है। इसपर पाबंदी लगाने की ज़रूरत है।

सन 2011 में केन्द्र सरकार ने उत्तराखंड में इको-सेंसिटिव ज़ोन बनाने की अधिसूचना ज़ारी की थी। पर उत्तराखंड सरकार ने इसे लागू नहीं किया। उत्तराखंड विधान सभा ने इस सिलसिले में प्रस्ताव भी पास किया है। सरकार का कहना है कि इससे विकास रुकेगा। इस ज़ोन के बनने से गोमुख से उत्तरकाशी तक 130 किलोमीटर के दायरे में पन बिजली परियोजनाएं नहीं लग सकेंगी। नदियों के आसपास निर्माण तथा अनुरक्षण के काम भी बगैर विशेष अनुमति के सम्भव नहीं होंगे। सन 2010 में सीएजी ने भगीरथी और अलकनंदा पर बनी जल विद्युत परियोजनाओं को लेकर इस इलाके में तबाही का अंदेशा व्यक्त किया था। पर्यावरण से जुड़ी संस्थाओं के अंदेशों की सूची काफी लम्बी है। कांग्रेस और भाजपा इस वक्त बाहर एक-दूसरे पर छीटाकशी कर रहे हैं, पर पर्यावरणीय संकट के लिए दोनों ज़िम्मेदार हैं। हम भविष्य के प्रति संवेदनशील हैं तो इसे राजनीतिक सवाल बनाने से बचना चाहिए। यह हम सबका साझा मामला है।


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