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सबका पेट भरने से रोकता कौन है?

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खाद्य सुरक्षा विधेयक सरकार के गले की हड्डी बन गया है. बजट सत्र के दूसरे दौर में जब अश्विनी कुमार और पवन बंसल को हटाने का शोर हो रहा था, खाद्य सुरक्षा विधेयक पेश होने की खबरें सुनाई पड़ीं. ऐसा नहीं हो पाया. इसके बाद सुनाई पड़ा कि सरकार अध्यादेश लाएगी, पर वैसा भी सम्भव नजर नहीं आता. सच यह है कि इतने लम्बे अरसे से इस कानून को बनाने की चर्चा के बावज़ूद इसके प्रावधानों को लेकर आम सहमति नहीं है. सत्तारूढ़ दल और विपक्ष की असहमतियों की बात अलग है, सरकार के भीतर असहमति है. सरकार ने विधेयक का जो रूप तैयार किया है उससे खाद्य मंत्री केवी थॉमस तक सहमत नहीं हैं. कृषि मंत्री शरद पवार इसके पक्ष में नहीं हैं. कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी इसे चाहती हैं, पर सरकार अनमनी है.

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तमिलनाडु में पहले से सबके लिए सस्ते अनाज की योजना चलती है. वहाँ की मुख्यमंत्री ने कहा है, हम आपकी योजना में शामिल नहीं होंगे. बिहार के मुख्यमंत्री कहते हैं, योजना का स्वागत है पर इसका खर्चा केन्द्र सरकार उठाए. ममता बनर्जी कहती हैं, यह कांग्रेस का राजनीतिक स्टंट है और सपा कहती है कि यह किसान विरोधी है. केन्द्र सरकार यह कानून बना रही है जबकि इसका काफी बड़ा बोझ राज्य सरकारों को उठाना है. केन्द्र की दिलचस्पी राजनीतिक लाभ उठाने में ज्यादा है. बावजूद इसके यह योजना देश के गरीबों की बदहाली दूर करने से ज्यादा आर्थिक विकास का पहिया तेज़ करने के लिए ज़रूरी है. उत्पादकता तब तक नहीं बढ़ेगी जब तक नागरिक स्वस्थ और सुशिक्षित न हों.


विश्व खाद्य संगठन के अनुसार दुनिया में हर दिन 20 हजार बच्चों को भूख निगल जाती है. हर साल एक अरब 30 करोड़ टन खाद्य सामग्री बर्बाद होती है और हर सातवाँ व्यक्ति भूखा सोता है. भारत में स्थिति और खराब है. विश्व भूख सूचकांक में भारत का 67वां स्थान है. हमारे यहाँ हर साल 25.50  करोड़ टन अनाज का उत्पादन है, फिर भी भारत का हर चौथा व्यक्ति भूखा सोता है. विडम्बना है कि सन 2011 में हमारे यहाँ अनाज की प्रति व्यक्ति वार्षिक उपलब्धता 165 किलोग्राम थी, फिर भी  भुखमरी से निपटने में हमारा देश पाकिस्तान और श्रीलंका से भी पीछे है. चीन इस सूची में जहां दूसरे नंबर पर है वहीं श्रीलंका 37वें और पाकिस्तान 57वें पर है. इस निराशाजनक स्थिति का हमारे आर्थिक विकास पर गहरा असर होगा, क्योंकि विकास का पहिया जिन लोगों के सहारे चलता है वे कुपोषण के शिकार हैं.


साठ के दशक में एक दौर ऐसा था जब अनाज और चीनी के लिए देश का काफी बड़ा तबका इस प्रणाली पर आश्रित था. एक पूरी पीढ़ी राशन की कतारों में खड़ी होकर बड़ी हुई है. दक्षिण भारत के राज्यों में यह व्यवस्था आज भी चल रही है, पर उत्तर भारत के अधिकतर राज्यों में यह व्यवस्था खत्म हो गई. उत्तर भारत में मध्य प्रदेश अपने नागरिकों को सस्ता अनाज दे रहा है और छत्तीसगढ़ ने अपने नब्बे फीसदी नागरिकों को सस्ता अनाज देने की योजना तैयार की है. आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, पश्चिम बंगाल और ओडीशा में भी सार्वजनिक वितरण प्रणालियाँ काम कर रहीं हैं.

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मूल रूप में यूपीए से सम्बद्ध राष्ट्रीय सलाहकार परिषद (एनएसी) ने सभी नागरिकों को कवर करने वाली योजना बनाई थी. सरकार ने तब इसके आकलन की जिम्मेदारी एक ओर प्रणब  नहीं है. मुखर्जी के नेतृत्व में ग्रुप ऑफ मिनिस्टर्स को दी वहीं सी रंगराजन के नेतृत्व वाली प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाह परिषद को भी दी. दोनों की सलाह थी कि सबके लिए सस्ता अनाज तो सम्भव नहीं है. इसके बाद टार्गेटेड ग्रुपों के लिए योजना बनी. अब ग्रामीण क्षेत्रों के 75 फीसदी और शहरों के 50 फीसदी लोगों के लिए योजना बनी है, जिसपर एक करोड़ 24 लाख करोड़ की सालाना सब्सिडी देनी होगी. एनएसी ने हर परिवार को 25 किलो सस्ता अनाज देने का सुझाव दिया था, पर विधेयक के अनुसार प्राथमिकता वर्ग के प्रति व्यक्ति को 7 किलो और सामान्य वर्ग के व्यक्ति को 3 किलो अनाज देने का विचार है. गर्भवती, स्तनपान कराने वाली स्त्रियों, छह महीने से 14 साल तक के बच्चों, कुपोषित बच्चों, आपदाग्रस्त, बेसहारा, बेघर और भुखमरी से पीड़ित व्यक्तियों के विशेष समूहों की पहचान अलग से होगी. इससे जुड़ी शिकायतों की सुनवाई का एक तंत्र भी बनेगा. यह इतनी जटिल प्रक्रिया है कि कानून बन जाने के बाद भी आसानी से लागू नहीं होगी.


योजना के व्यावहारिक रूप का पता योजना के लागू होने के बाद लगेगा. सब्सिडी के पात्र वे लोग हैं जो गरीबी रेखा से नीचे (बीपीएल) हैं. लेकिन समस्या यह है कि जिन्हें बीपीएल कार्ड जारी होना चाहिए था, उनमें से कइयों को यह नहीं मिला और जिन्हें बीपीएल कार्ड नहीं दिया जाना चाहिए था, उनमें से बहुत को यह मिल गया. इस योजना के क्रियान्वयन, लाभार्थियों की पहचान, अनाज भंडारण के लिए स्थान और भंडारण में राज्य सरकारों की भूमिका है. अगर यह बात सामने आ रही है कि पीडीएस का फायदा गैर-बीपीएल लोगों को मिल रहा है तो हमें सतर्क होना होगा. योजना तब तक सफल नहीं होगी जब तक केन्द्र और राज्य सरकारों का समन्वय न हो और इस काम में सर्वानुमति न हो. केन्द्र सरकार इसके साथ कैश ट्रांसफर योजना को भी लागू कर रही है. उसमें भी दिक्कतें सामने आ रहीं हैं. कांग्रेस पार्टी इसे राजनीतिक कार्यक्रम के रूप में ला रही है और वह इसका राजनीतिक लाभ लेना भी चाहेगी, पर यह सिर्फ प्रचारात्मक नहीं रहना चाहिए. सिर्फ एक चुनाव जीतने के लिए इंदिरा गांधी का गरीबी हटाओ नारा उपयोगी साबित हुआ, पर हुआ क्या? गरीबी तो वहीं की वहीं रही. ऐसा न हो कि सरकार का लाखों करोड़ रुपया कुछ बिचौलियों का पेट भरने का काम करे.

साभार: प्रमोद जोशी

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