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क्या यह मीडिया के कुकर्मों का फल है?

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विगत दिनों बम्बई और दिल्ली में हुए मीडिया पर हमले पर इलेक्ट्रानिक चैनेलों ने लम्बे चौड़े कार्यक्रम पेश किए, जिसमें वे जनता को कोसते दिखाई पड़े. ये वही मीडिया है जो जनता की बलईयां लेती नहीं अघाती. जिन्होंने अपने आपको आमजनता के हिमायती के रूप में पेश किया. और कई बार आम लोगों की मुश्किलों से सरकार को अवगत कराने में महत्त्पूर्ण भूमिका भी निभाई. ये समझना कठिन है कि अपने आपको लोकतंत्र का चैथा स्तंभ बताने वाली मीडिया इतनी लाचार क्यों हो गई. लाचारी भी इस कदर कि अपने ही दर्शकों को नीचा दिखाने की नाकाम कोशिश.

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मीडिया पर हमला कोई नई बात नहीं, न ही ऐसे सामाचार ब्रेकिंग न्यूज श्रेणी में रखे जाने चाहिऐ. पहले भी प्रेस पर हमले हुए हैं. लेकिन जिस तरह पिछले दो सालों में मीडिया पर हमलो की संख्या बढी है. मीडिया के मामले में गहराई से विचार करने कि आवश्यकता है. आज की मीडिया पर हो रहे हमले के परिप्रेक्ष्य में मीडिया की भूमिका पर विचार करेने की आवश्यकता है. मुझे लगता है कि प्रेस या मीडिया आज के जागरुक भारतीय जनता के हिसाब से विकसित नहीं हो पाया है. ज्यादातर सम्पादक या रिर्पोटर जनता को क्लास रूम का स्टुडेंट समझ कर खबरें तैयार करते है. ये खबरें 1950 की मानसिकता में तैयार किये जाते हैं जब छपे हुए किसी भी टेक्स्ट को अकाट्य एवं अंतिम सत्य माना जाता था. लेकिन अब विभिन्न माध्यमों के मार्फत जागरुक जनता सही और गलत का फर्क समझने लगी है, लेकिन मीडिया है कि वो परोसने में ही लगी है जिससे जनता उब चुकी है. जिस तरीके से असम मुद्दे पर बम्बई में मीडिया पर हमले हुए एवं उसके बाद जो बात सामने आई चौंकाने वाली थी कि मीडिया ने एक पक्ष को ही सामने रखा एवं उसी की वकालत भी कि एवं दूसरा पीड़ित पक्ष आहत होता रहा. जब सरकार भी बात न समझे, मीडिया भी आपकी बात पहुंचाने में नाकाम रहे, तो जनता के पास विकल्प ही क्या रह जाता है? यहां मीडिया पर हमला किसी भी दृष्टिकोण से सराहनीय नहीं है. मीडिया ने जिस तरह से इस हमले को व्यक्तिगत हमले के रूप में देखा एवं ताबड़तोड़ कार्यक्रम चलाए, बजाए इसके की समस्या के मर्म को समझा जाए, एक दुखद पहलू है. यहां मीडिया का बढ़ता अहम जनता को रईयत (गुलाम प्रजा) की तरह ट्रीट करता है, जो एक खतरनाक परिणाम की ओर इशारा करता है.

मीडिया की विश्वसनीयता की आज कहीं कोई चर्चा नहीं हो रही है. भारत की जागरुक जनता मीडिया के चरित्र से भली भांति परिचित है. फलां न्यूज पेपर, फलां चैनल, फलां पार्टी का पक्ष लेता है. पिछले दिनों तमाम राज्य सरकारों द्वारा सामाचार विज्ञापन के नाम पर मीडिया को बड़े रकम की फंडिंग किये जाने के खुलासे हुए हैं. राडिया, प्रभु चावला भ्रष्टाचार काण्ड अभी तक लोगों की जेहन में है. यानि, जिस प्रेस-मीडिया पर जनता भरोसा करती थी उसके खुलासे, विश्वसनीयता खत्म करते हैं.

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हालांकि चैनलों ने शुतुमुर्ग की तरह अपनी ओर से इसे लगभग भुला दिया और इन आरोपों में फंसे लोगों की कोई खबर तक नहीं ली, ताकि इन्हें निश्चित सजा मिल पाये. यानि मीडिया कुटुम्ब ने उन्हें साबुत बचा लिया. यहां ये बात तो तय है कि मीडिया शब्द पब्लिक को बेवकूफ बनाने के लिए प्रयोग किये जाते हैं. वास्तव में मीडिया एक घराने कि तरह चलती है, किसी के सरोकार से किसी को कोई लेना देना नहीं. कौन सी सामग्री लेनी है? कंटेन्ट क्या होगा? लेखक या प्रस्तोता कौन होगा? सब कुछ तय होता है. सच्चाई से कोई लेना देना नहीं.

रोचक तथ्य है कि किस प्रकार मीडिया ने राडिया कांड से उबरने के लिए भ्रष्टाचार को नेशनल ईशू बनाकर अपनी साख बचाने की चेष्टा की. मीडिया ने भ्रष्टाचार को अन्ना या जनता के लिए नहीं उठाया, बल्कि अपने खुद के लिए उठाया ताकि अपनी छवि सुधार सके. दिल्ली, एम्स की चंद मेडिकल सीटों की खातिर हुए धरने को मीडिया ने जिस तरीके से पूरे देश में हो रही आरक्षण विरोधी लहर के रूप में दिखाया, बेहद शर्मनाक है. ये मीडिया का सामंतवादी चेहरा है जो छद्म प्रगतिशीलता के मुखौटे को बेनकाब करती है.

मैं यहां समाचार के भूखे उन रिपोर्टरों की चर्चा करना लाजमी समझता हूं जो डी आई जी के कुत्ते की गुम हो जाने की खबर को नेशनल ब्रेकिंग न्यूज बनाते हैं. वे किस तरह से आधी अधूरी जानकारी लेकर रिर्पोट पेश करते, गलत रिजल्ट निकालकर दर्शकों को गुमराह करते हैं. यह कानूनन जुर्म तो है,साथ ही मानवता के भी खिलाफ है. इससे कईयों की जिन्दगी खराब हो गई. इस मामले में कई चैनलों को कोर्ट ने फटकार भी लगाई लेकिन दुम टेढ़ा का टेढा. इसलिए अब न्यूज नहीं मिलता, ब्रेकिंग न्यूज के सिवाय. निकम्मा मीडिया, प्रेस की बैठे ठाले सामाचार की चाहत प्रेस को कमजोर बनाती है. मैं आपको बताता हूं कि भारतीय मीडिया के न्यूज का स्त्रोत क्या है? (1) शिवसेना प्रमुख बाल ठाकरे के मुख पत्र सामना का संपादकीय; (2) 10 जनपथ नई दिल्ली; (3) दिग्विजय सिंह के कमेंट्स; (4) अभिनेताओं के ट्विटर एकाउन्टस; (5) एल के आडवानी का ब्लाग; (6) नेताओं एवं अफसरों के अवैध संबंध पर आधारित सामाचार; (7) पेट्रोल का दाम बढना एवं घटना यह लिस्ट लम्बी हो सकती है, लेकिन ये भारतीय मीडिया के न्यूज का मुख्य स्त्रोत है.

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इन ब्रेकिगं न्यूज के हावी रहने से जरूरी सामाचारों का गला घोट दिया जाता है. उस पर भी जुमला यह कि हम लोकतंत्र के चौथे स्तंभ हैं. भारत में बढ़ रहे जातिगत प्रताड़ना की घटनाएं एवं मुद्दे; महिलाओं पर हो रहे अत्याचार; आमलोगों के सामाचार जिन्होंने मिसाल कायम किये हैं; जनता के हित के मुद्दे; ज्ञान-विज्ञान आविष्कार की नई जानकारी; अंधविश्वास विरोधी कार्यक्रम; धर्म निरपेक्षता के कार्यक्रम आदि हाशिए पर चले जाते हैं. मीडिया के दो चेहरे जैसा कि मैनें पहले कहा है, मीडिया सिर्फ मीडिया नहीं, बल्कि ये किसी घराने का व्यापार की तरह रोल अदा करते हैं. यानी यदि किसी घराने में एक भाई अंधविश्वास की दुकान चलाता है तो उस घराने की मीडिया उसे एक चमत्कार के रूप में पेश करती. यदि जनता सबसे ज्यादा त्रस्त है तो उसके दो चेहरे से. एक ओर राशिफल, भविष्यफल पर जनता को गुमराह करने के प्रोग्राम चलाये जाते हैं तो दूसरी ओर अमेरिका के नासा की खबर चलाई जाती है.

मीडिया ने ठगी को अघोषित रूप से दो भागों में बांट रखा है; एक शास्त्रीय ठगी, दूसरा अशास्त्रीय ठगी. भारतीय मीडिया यहां पर चतुर सियार की तरह शास्त्रीय ठगी को वैज्ञानिकता की चाशनी में पेश करता है, तो दूसरी ओर प्रगतिशील दिखने की गरज से अशास्त्रीय ठगी को धिक्कारती भी दिखाई पड़ती है. निर्मल बाबा को इसी मुहिम के तहत दुकान बंद करने को विवश किया गया, लेकिन बाकी ठगों को बचा लिया गया. यहां आपको यह बताना भी प्रासंगिक होगा कि धार्मिक पूर्वाग्रह से भी ये तंत्र पूरी तरह ग्रस्त हैं. असम कांड इसी का परिणाम है.

आज से 10 साल पहले मध्य प्रदेश के एक राष्ट्रीय न्यूज पेपर ने धार्मिक पूर्वाग्रह से ग्रसित होकर मुसलमान धर्म के प्रर्वतक मोहम्मद साहेब को हिन्दू धर्म की एक शाखा का मानने वाला बताते हुए लगातार तीन लेख प्रकाशित किये, जो जानबूझ कर किसी धर्म विशेष को बौना दिखाने के इरादे से किया गया था. इससे प्रेस कार्यलयों में तोड़फोड़ हुई, इसके बाद उस न्यूज पेपर ने इन्हें दंगाईयों के तौर पर प्रचारित करने का अभियान चलाया. ऐसी स्थिति में कोई अल्प संख्यक, मीडिया की निष्पक्षता पर क्यों विश्वास करेगा? इसी प्रकार के कई सामाचार अल्पसंख्यक धर्मावलियों के प्ररिप्रेक्ष्य में आते रहते है. पैसे के लिए सब कुछ करेगा. रात दिन भ्रष्टाचार पर हाय तौबा करने वाली मीडिया अब अपने दामन को भ्रष्टाचार के दाग से बचाए रखने की जुगत में है.

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आज विज्ञापन के नाम पर तेल, कंठीमाला, लिंग वर्धक यंत्र, धनवर्षा यंत्र, सेक्स वृद्धि यंत्र को आर्युवेद एवं संस्कृति के नाम पर परोसा जा रहा है. यहां पर चैनल अपनी आर्थिक मजबूरी का हवाला देते दिखाई पड़ते हैं. भले ही वे विज्ञापन एवं वास्तविक कार्यक्रम में फर्क बताने की जिम्मेवारी से बचते हों, आम शिक्षित अज्ञानी लोग विज्ञापन से प्रभावित होकर ठगी के शिकार हो जाते हैं. इसी प्रकार कई बार रिर्पोटरों द्वारा सामाचार पेश करने के लिए पैसे लेते रंगे हाथों दिखाया. सतना के चुनावी सम्मेलन में मीडिया को लिफाफे देने का दृष्य चैनलों में दिखाया गया. राजनीतिक पार्टियां एवं सरकारें किस प्रकार मीडिया को चुनाव के समय अपने पक्ष में माहौल बनाने के लिए प्रयोग करती है यह बात किसी से छिपी नहीं है और चतुर रिर्पोटर इस काम के लिए आतुर रहते हैं.

आज ‘पेड न्यूज’ एक विकट समस्या बनकर सामने आई है. कोर्ट ने भी ‘पेड न्यूज’ के अस्तित्व को स्वीकार किया है एवं उसके निदान हेतु चिंतित है. राजनीतिक पार्टियों, व्यावसायिक घरानों, फिल्म उद्योग, क्रिकेट खिलाड़ियों द्वारा पेड न्यूज का धड़ल्ले से प्रयोग किया जा रहा है. इसी प्रकार एक खिलाड़ी द्वारा दो सालों से भारत रत्न प्राप्त करने हेतु पेड न्यूज चलवाने की खबर सुर्खियों में रही. इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि हमारे स्वयंभू चौथे खम्भे में कितनी दीमक लग गई है. उस पर भी जुमला ये कि लोग मीडिया पर हमला कर रहे हैं. अब हमें यह सोचना होगा अपने अंदर पल रहे ‘मीडिया अहं’ से बाहर निकल कर क्या हम भारतीय समाज के प्रति इमानदार हैं. यदि नहीं तो मीडिया में रहने का या उसे चलाने के बजाय व्यवसाय का दूसरा विकल्प चुनना चाहिए.

साभार: संजीव खुदशाह

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