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भारतीय सिनेमा के सौ साल पर फिल्मों की चर्चा चल रही है। इनमें हिन्दी फिल्मों के समानांतर अहिन्दी फिल्मों की चर्चा भी हो रही है। इनमें हिन्दी मराठी, बांग्ला और दक्षिण की कई फिल्मों के निर्देशक कलाकार इन सभी भाषाओं में काम करते हैं और कहीं कहीं एक साथ काम करते हुए दिखते हैं। इन फिल्मों पर होने वाली बहस में हिन्दी सहित अनेक अहिन्दी फिल्मों और उनके कलाकार शामिल हैं पर यह दुखद और आश्चर्य जनक है कि इनमें तेलुगु फिल्मों और उनके कलाकारों का जिक्र नहीं हो पा रहा है, जबकि यह माना जाता है कि फिल्मों की संख्या में तेलुगु फिल्में सबसे आगे हैं।
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तेलुगु फिल्में संख्या, निर्माण, गुणवत्ता व फिल्मांकन की दृष्टि से हिन्दी फिल्मों के समकक्ष उतरती हैं और पौराणिक फिल्मों के निर्माण में यह हिन्दी तथा अन्य भाषायी फिल्मों से काफी आगे हैं। ऐसा लगता है कि पौराणिक फिल्मों की जिस उत्कृष्टता से तेलुगु फिल्में महिमा मंडित होती रही हैं वही मेनस्ट्रीम सिनेमा (सिनेमा की मुख्यधारा) के मूल्यांकन के दौर में उसकी कमजोरी बन गई है। भारतीय सिनेमा के सौ साल की रचनात्मकता पर जो चर्चा जारी है उनमें उनके सामाजिक सरोकारों पर मुख्य रुप से ध्यान केन्द्रित है और तेलुगु फिल्मों पर दृष्टिपात करने से उनके इस रचनात्मक सामाजिक फिल्मों का पता नहीं लग पा रहा है और उनके अभिनेताओं अभिनेत्रिओं की भूमिका में उस रचनात्मकता को खोजे जाने की फिलहाल प्रतीक्षा ही है जिनसे किसी फिल्म का एक सुधारवादी रुप सामने आता है और उसके दर्शकों पर गहन सामाजिक प्रभाव पड़ता है। यह जरुर है कि तेलुगु फिल्मों के निर्माण को पूरे सौ साल नहीं हुए हैं। यहॉ पहली मूक फिल्म ’भीष्म प्रतिज्ञा’ 1921 में बनी और पहली बोलती फिल्म ’भक्त प्रहलाद’ 1933 में बनी थी। पर भारतीय सिनेमा के सौ वर्षों को समग्र रुप में देखा जा रहा है और तेलुगु फिल्मों की उम्र केवल आठ साल ही कम है और यह अवस्था कम नहीं है।
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हिन्दी तथा तमिल फिल्मों में अलग अलग काल में अलग नायक हुए और उनका अलग अलग प्रभाव पड़ता रहा है। हिन्दी फिल्मों में ऐसे नायकों (हीरो) की यह फेहरिश्त लम्बी है। पर तेलुगु फिल्मों में उसके लम्बे कालखण्ड में दो महानायकों एन.टी.रामाराव और नागेश्वर राव का कोई सानी आज तक पैदा नहीं हो सका है। ये महानायक तेलुगु फिल्मों के ऐसे वटवृक्ष रहे हैं जिनकी छाया में कोई दूसरा कलाकार पनप नहीं पाया।
एन.टी.रामाराव जिनका लोकप्रिय नाम ’एन. टी.आर.’ रहा है उन्होंने जन मानस पर इतनी पैठ जमा ली थी कि अपने बुढ़ापे काल के बावजूद भी राजनीति में उतरकर आन्ध्र प्रदेश में कांग्रेस जैसी विशाल पार्टी को ध्वस्त कर तेलुगु देशम नाम की एक क्षेत्रीय पार्टी बना ली और उसे सत्तानशीन कर दिया। इस अभिनेता ने पहले ऐसे नेता होने का श्रेय लिया जिन्होंने तेलुगु जनता को ’तेलुगु’ रुप में पहचान दी जबकि इससे पहले तेलुगु जनमानस को आम बोलचाल में समस्त दक्षिण भारतीयों की तरह ’मद्रासी’ कह दिया जाता था। राम, कृष्ण तथा महाभारत के अनेक पात्रों और कई कई पौराणिक गाथाओं के मिथक चरित्रों के अपने अभिनय से जीवन्त कर देने वाले एन.टी.आर. अपने जीते-जी स्वयं एक मिथक बन गए थे और वे आन्ध्र की जनता के बीच किसी भगवान की तरह पूजे जाने लगे थे, पर आज मेनस्ट्रीम सिनेमा में तेलुगु फिल्मों के इस भगवान की कोई चर्चा नहीं है।
एनटीआर की तुलना में उनके समकालीन दूसरे महानायक नागेश्वर राव ने सामाजिक फिल्मों में अधिक हिस्सेदारी की थी। उन्हें दादा साहब फाल्के का सर्वोच्च सम्मान भी प्राप्त हुआ था। यह सम्मान निर्देशक बी.नागिरेड्डी को भी प्राप्त हुआ था। एनटीआर भी यह सम्मान प्राप्त कर सकते थे। जल्दी दिवंगत हो जाने और संभवतः घोर राजनीति में सक्रिय हो जाने के कारण वे इस सम्मान को नहीं पा सके थे।
यहॉ पर मुद्दा यह है कि फिल्म निर्माण के क्षेत्र में कई किस्म के गिनीज रिकार्ड बना लेने वाली ’टॉलीवुड’ की तेलुगु फिल्मों ने अपने गौरवशाली इतिहास में मात्र दो नायकों को ही पहचान दी। बाद की आधुनिक फिल्मों में चिरंजीव और नागार्जुन जैसे कुछ नायक कामयाब रहे पर वे भी कला और सार्थक फिल्मों के अभिनेता नहीं माने गए। दक्षिण की दूसरी भाषाओं की फिल्मों में आज भी शिवाजी गणेशन को तमिल फिल्मों के महान अभिनेता के रुप में उनके योगदान को सिनेमा की मुख्यधारा में शामिल किया जाता है। बाद में रजनीकांत और कमलहासन हुए जिन्होंने फिल्मों और उसकी तकनीकों में कई अनूठे प्रयोग किए। रजनीकांत ने ’रोबोट’ बनाकर फिल्मों की धारा को एक नयी दिशा दे दी। कमलहासन ने तो कई कलात्मक सार्थक फिल्मों का निर्माण किया और सिनेमा की मुख्य धारा को हमेशा प्रभावित किया है। कन्नड़ भाषा बोलने वालों में नाटकों की ओर अधिक और फिल्मों की ओर कम रुझान रहा, इसलिए वहॉ व्यावसायिक फिल्मों के एक अभिनेता राजकुमार की ही हैसियत बन पाई लेकिन कन्नड़ और हिन्दी की कला फिल्मों को गिरीश कर्नाड ने खूब उंचाई दी है।
बांग्ला भाषा के कलाकार व्यावसायिक फिल्मों में दखल नहीं दे सके, अपनी व्यावसायिक भूख को मिटाने के लिए उन्होंने हिन्दी फिल्मों को अपनाया और सफलता प्राप्त की। फिर भी बांग्ला की व्यावसायिक फिल्म में उत्तम कुमार और सुचित्रा सेन की लोकप्रियता का बुखार बंगाली दर्शकों को चढ़ा था। सामाजिक सरोकारों वाली उनकी समानांतर व कला फिल्मों ने अंतर्राष्ट्रीय उंचाई प्राप्त की और सत्यजीत राय व मृणाल सेन जैसे निर्देशकों ने बड़ी प्रतिष्ठा अर्जित की। मराठी भाषा क्षेत्र ने फिल्म निर्माण का न केवल इतिहास रचा बल्कि इस इतिहास का आरंभ किया जहॉ दादा साहब फाल्के और व्ही.शांताराम जैसे ऐतिहासिक फिल्म निर्माता हुए। इन सबकी चर्चा आज भारतीय सिनेमा के सौ साल के अवसर पर हो रही है। पर यह विडंबना है कि दुनिया का सबसे बड़ा स्टुडियो हैदराबाद में रखने, फिल्मों का सबसे बड़ा परदा टॉगने, सबसे ज्यादा सिनेमा हॉल और दर्शक होने के बावजूद भी तेलुगु फिल्मों के किसी भी निर्माता निर्देशक, अभिनेता और अभिनेत्री की चर्चा सिनेमा की मुख्यधारा में नहीं हो पा रही है, जबकि तेलुगु फिल्मों की कितनी ही नायिकाओं ने व्यावसायिक हिन्दी फिल्मों को उंचाइयॉ दीं। आखिर इन सबों का कारण क्या है? इस पर तेलुगु फिल्मों के विशेषज्ञ समीक्षक क्या कहते हैं? टॉलीवुड इन सबके लिए कितना जिम्मेदार है? आन्ध्र प्रदेश की मीडिया की क्या भूमिका रही है? क्या तेलुगु फिल्मों की सारी रचनात्मक विषेषताऍं पौराणिकता के प्रति घोर श्रद्धा के गाल में समा गईं! नायक-नायिका की उन्नत अदाओं में सराबोर हो गईं! किसी महाशक्ति के चमत्कार, मारधाड़ या स्टंट की चकाचौंध में डूब गईं। क्या तकनीक दिखाने के चक्कर में हम कथानक के प्रभाव को भूल गए। इन सबों पर आज चर्चा की जरुरत है, तेलुगु कला विशेषज्ञों को गंभीर होकर सोचने की जरुरत है। फिल्म निर्माण की सारी क्षमताओं और तकनीकी उत्कृष्ठता के प्रदर्शन के बावजूद आज मेनस्ट्रीम सिनेमा में तेलुगु फिल्में कहॉ खड़ी हैं? भारतीय सिनेमा के सौ वर्ष की चर्चा से तेलुगु फिल्में क्यों नदारद हैं? आखिर क्यों?
विनोद साव.
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