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सत्ता की वंशवादी सूबेदारी

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महाराष्ट्र विधानसभा चुनावों में प्रत्याशियों की सूची पर नज़र डालें तो जिस तरह राज्य के बड़े नेताओं ने अपने सगे-संबंधियों को टिकट देने की बंदरबांट मचाई है, उसे देखकर तो यही लगता है कि भारतीय लोकतंत्र का भविष्य जैसे इन नेताओं के परिजनों के लिए आरक्षित है.

सबसे ज़्यादा अति तो तब हो गई जब राष्ट्रपति के बेटे को विधानसभा चुनाव का टिकट दे दिया गया.

कुल मिलाकर लगने यह लगा है कि एक अरब से भी ज़्यादा जनसंख्या वाले, विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र में क्या चुनावी राजनीति सिर्फ़ 400-500 परिवारों की बपौती बनकर रह जाएगी. बाकी का पूरा देश क्या इन अलग अलग वंशों के ताज़ातरीन उत्तराधिकारियों का मात्र झंडाबरदार, वफादार सैनिक या कभी भी बराबरी का स्थान चाहने की हिमाक़त न कर सकने वाला समर्थक बनकर रह जाएगा.

बात इन प्रत्याशियों के अच्छे या बुरे होने की नहीं है, न ही यह है कि अगर इनके पिता राजनीति में थे तो इसका ख़ामियाजा ये क्यों भुगतें.


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वैसे यह ख़ामियाजा वाला तर्क है बड़ा दिलचस्प. किसी भी पायलट, प्रसाद, देवड़ा, यादव या अन्य किसी भी अति प्रतिभावान और सर्वगुण संपन्न राजनीतिक वंश के चमकते हुए मौजूदा सितारे से जैसे ही राजनीति में परिवारवाद की चर्चा आप शुरू करेंगे, वो फ़ौरन पलटवार कर दो बातें कहते हैं.

पहली, कि अगर उनके पूर्वज राजनीति में थे तो इसमें उनकी क्या ग़लती. दूसरी यह कि वे अपने दमखम पर चुनाव जीतकर आए हैं. कोई पीछे के दरवाज़े से चुपचाप आकर सत्ता पर काबिज नहीं हो गए हैं. सही है कि वे चुनाव जीतकर आते हैं. पर वे यह बताना भूल जाते हैं कि पार्टी टिकट तो जैसे उन्हें वसीयत में मिला था.

भारतीय चुनावी प्रणाली में असली मोर्चा तो पार्टी का टिकट हासिल करना है.

फिर इन सूरमाओं ने अपने पूर्वजों की सीट को दशकों तक सींचा-संजोया है, वफादारों को आगे बढ़ाया है. पनपाया है, स्थानीय रकीबों को तरह तरह से निपटाया है, मनपसंद स्कीमें लागू करवाई हैं. पसंद के अधिकारी नियुक्त करवाए हैं. कुल मिलाकर अपनी सीट को खानदानी सूबेदारी की तरह से दशकों चलाया है तो फिर पार्टी का टिकट हासिल करने के बाद तो कोई बहुत बड़ा सूरमा सामने आ जाए, तभी इन वर्तमान के सूर्यवंशियों और चंद्रवंशियों को चुनावी समर में निपटा सकता है.


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महाराष्ट्र की ही बात पर लौटें तो शरद पवार के एक हाल के बयान पर ध्यान जाता है और हंसी भी आती है और रोना भी. उन्होंने कहा कि समय आ गया है कि अब युवा पीढ़ी आगे आए. उनकी पार्टी में इस युवा पीढ़ी का नेतृत्व कौन करेगा, यह पहले से तय है. केंद्र में एनसीपी की नेता होंगी उनकी बेटी सुप्रिया और राज्य में उनके भतीजे अजीत पवार.

वंशवाद के लिए सिर्फ़ नेहरू-गांधी परिवार या कांग्रेस को कोसते रहें, यह सही नहीं होगा. वामदलों के अलावा कोई भी इस बीमारी से अछूता नहीं. भाजपा में कुछ कम है वंशवाद का ज़हर पर अब वहाँ भी बढ़ रहा है.

क्षेत्रीय दल तो हैं ही कुछ परिवारों की बपौती. मुलायम का परिवार और भाई सरीखे अमर सिंह समाजवादी पार्टी हैं, अजीत सिंह जी की विरासत आरएलडी है, करुणानिधि और उनका कुनबा डीएमके है, लालू एवं परिवार का मतलब आरजेडी है, बीएसपी, एआईएडीएमके और बीजेडी तो सिर्फ़ एक ही व्यक्ति की पार्टियां हैं कि इन दलों के नेताओं ने शादी न करके सारी शक्ति का केंद्र बिंदु सिर्फ और सिर्फ स्वयं को ही बनाकर रखा हुआ है.


आखिर में एक बात और… जब अमरीका में बराक ओबामा राष्ट्रपति बने तो भारत में भी रोमांटिक्स की एक बड़ी टोली खड़ी हो गई और लगी तलाशने देसी ओबामा को. पर परिवार और वंश के चक्रव्युह में फंसे भारतीय लोकतंत्र में शायद ही कभी किसी ओबामा का उदय हो पाए.


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लेखक संजीव श्रीवास्तव


Tags:Maharashtra, Mumbai, Rajya Sabha, Politics, Sachin Pilot, महाराष्ट्र विधानसभा, विधानसभा, पायलट, प्रसाद, देवड़ा, यादव, मुम्बई, महाराष्ट्र, राजनीति

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