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जब मैं दिल्ली में पढ़ाई कर रहा था तो सोचता था कि एक दिन बिहार ज़रुर जाउंगा. पिछले दिनों वहाँ जाने का मौक़ा मिल ही गया. बीबीसी के बिहार संवाददाता मणिकांत ठाकुर के साथ बच्चेदानी के ऑपरेशन के घोटाले पर काम करना था सो गांव-गांव घूमने का मौक़ा भी मिला.
पटना में पहले दिन सड़कों पर निकलते ही स्कॉर्पियो जैसी बड़ी गाड़ियाँ इतनी ज्यादा दिखाई दीं कि आश्चर्य हुआ. मैंने रिक्शेवाले से पूछा, पटना में इतनी ज्यादा स्कॉर्पियो गाड़ियां क्यों हैं? रिक्शावाले ने कहा, ‘दबंग गाड़ी है न, इसलिए’ और मेरे मन ने कहा,’पैसा ज्यादा है इसलिए’. मेरे मन में सवाल आया, मुख्यमंत्री नीतीश कुमार कहते हैं बिहार ग़रीब है, खास राज्य का दर्जा मिले. देश में आम धारणा भी है कि बिहार ग़रीब है लेकिन पटना की सड़कों पर देखकर तो नहीं लगता कि बिहार ग़रीब है. तो ग़रीबी कहाँ है?
अब बिहार की मेरी पूरी यात्रा इन्हीं सवालों के इर्द-गिर्द पूरी होने वाली थी. हम समस्तीपुर की ओर चल पड़े. सड़क के किनारे खेतों में धान की फसल लहलहा रही थी. हरियाली देखकर आंखों को सूकून मिल रहा था और मन कह रहा था कि बिहार ग़रीब नहीं हो सकता. लेकिन जैसे-जैसे हम राजधानी पटना से दूर होते गए रौनक इस तरह दूर होती गई मानों हम रोशनी के स्रोत से दूर जा रहे हैं.
समस्तीपुर पहुंचते-पहुंचते तस्वीर साफ़ होने लगी थी. यहां सत्ता का तेज़ नहीं था और सामने था हकीकत का धरातल. बस राहत की बात ये थी कि मुख्य सड़कें अच्छी थीं जिसकी वाहवाही नीतीश कुमार को मिल रही है. जब हम निजी अस्पतालों में गए तो लगा कि निजी अस्पताल तो यहां खैराती अस्पतालों से भी बुरे हैं.
मुख्य सड़क से उतरते ही देखा कि नाली का काला कचरा सड़क पर जगह-जगह जमा हुआ है. सड़क के दोनों ओर दवाइयों की दुकानें और एक के बाद एक नर्सिंग होम. नर्सिंग होम ऐसे कि खुली दुकान में एक किनारे डॉक्टर बैठा है और सामने एक ओर बिस्तर पर मरीज़ और दूसरी ओर कतार में लगे मरीज़. मन पूछता था कि इतने लोग एक साथ बीमार कैसे हो सकते हैं. ‘बिहार ग़रीब क्यों है?’ के बाद अब मेरे मन में सवाल ये भी था, ‘इतने लोग बीमार कैसे हो सकते हैं?’ जिन महिलाओं की बच्चेदानी ग़लत तरीके से निकाली गई है उनसे मिलने हम कुछ गाँवों में पहुँचे और मेरे सामने बिहार की असल तस्वीर आने लगी.
वहाँ वो तस्वीर दिखी जो अब फ़िल्मों में भी नहीं दिखाई देती. एक झोंपड़ी का दृश्य, एक संदूक, एक चूल्हा, तीन डिब्बी नमक मिर्च मसाले की, कुछ बर्तन और एक छोटा सा आंगन. परिवार का मुखिया दिहाड़ी मज़दूर और और सात बच्चे. बातचीत में परिवार की महिला ने बताया कि जब से बच्चेदानी निकलवाई है तब से चक्कर आते हैं और अब वो मज़दूरी भी नहीं कर पाती. उसका कहना था कि ऑपरेशन तो बीपीएल कार्ड पर हो गया लेकिन उसके बाद जो दवाइयां खानी पड़ीं, उनकी ख़र्च लगभग हज़ार रुपये हर महीने था.
ग्रामीण इलाक़ों के लिए हर दिन 28 रुपए को पर्याप्त बताने वाले योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह अहलूवालिया का चेहरा मेरी नज़रों के सामने से गुज़र गया. सोचने लगा कि इलाज के इस पैसे का इंतजाम कैसे हुआ होगा? इसके बाद हम एक डॉक्टर के क्लीनिक पहुंचे. वे हमें एक कमरे में ले गए. इसी एक कमरे में एयरकंडीशर था. तब समझ में आया कि ये ऑपरेशन थिएटर है. छत से एक लाइट लटक रही थी. नीचे टूटा हुआ लोहे का पलंग था. औज़ार जमीन पर लकडी़ की एक नीची बेंच पर रखे थे. उनके आस-पास की जगह काली हो गई थी मानो सालों से सफ़ाई न हुई हो.
डॉक्टर से बात करते-करते ही एक चूहा मेरे कदमों के पास से दौड़ लगाता निकला मानो वो भी अपनी हाज़िरी दर्ज करवा रहा हो. दीवार पर लगभग हर भगवान की तस्वीर थी, शिव, लक्ष्मी, काली मां और हनुमान. ये तस्वीर मुझे देर तक याद आती रही और साथ ही याद आता रहा ये जुमला कि सब कुछ भगवान भरोसे है. डॉक्टर साहब का मुंह पान से रंगा हुआ था, गले में स्टेथस्कोप लटका था और वो दलील दे रहे थे कि कैसे उन्होंने सिर्फ़ ज़रुरी ऑपरेशन ही किए हैं.
मेरे मन ने कहा कि जब इतने बुरे हालात में किसी स्वस्थ आदमी का भी पेट खोल के रख दिया जाए तो उसका इलाज ‘ज़रुरी’ होना तय है. इसी तरह पांच दिन अलग-अलग स्थितियों से मैं गुज़रता रहा. जब पटना से वापस लौट रहा था तो मेरे मन में एक बात स्पष्ट थी कि ग़रीबों को यहां लूटा जा रहा है और नीतीश कुमार का सुशासन अभी पटना से आगे नहीं बढ़ पाया है.
मन में तरह-तरह के सवाल आते रहे और मैं जवाब ढूंढ़ने की असफल कोशिश करता रहा. अगर आपके पास इसका जवाब हो तो जरूर बताइएगा.
लेखक पवन नारा
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